तो ले चला मैं संग कर्मों की बही को,
जिसका बराबर हो गया है लेना-देना ।
और छोड़ वो सब जो दुनिया के निशाँ है,
जिनपे हमारा अब नहीं कोई निशाना ।
लो आज माधव वचन अपना यू निभाओ,
मिल जाये अपगा सागर सम तुममें ही जाकर ।
और पुनः ना जुड़ पाये कोई बंधन ऐसा,
जिससे कभी भी हो पुनः इस जग में आना ।
वैसे कभी मैं सोचता हूँ क्यों गिरा मैं,
इस सघन तम के गर्त में क्या सोच करके ।
या ये तो नहीं की तुमने ही मुझको गिराया,
अपनी क्षणिक आनंद लीला के निमित्त यू ।
और छीन ली वो समझ जो मुझको मिली अब,
अनगिनत सब जतन कर गुरुओ से सीखे ।
क्या किया होगा कि जिसकी सजा थे,
अनेकों जीवन के ये जंजाल जकड़े,
और बताया ये नहीं की शर्त है एक,
जो पहेली बन बही के गणित में है ।
पर अब नियम पूरा हुआ इस खेल का जो,
तुमने लीला रच रचा के था बनाया ।
लो शर्त पूरी हो गई है उस बही की,
जिसमें कभी जोड़ा घटाया ना शून्य आया ।
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