ये छाँव और धूप, भी खेलती है खेल,
किसी को भरम, किसी को आराम देती है ।
बन जाती काल धूप, जब देखती है ये की,
निकला है जीतने कोई बच्चों की रोटियाँ ।
और बन जाती छाँव जैसे ही निकलता कोई,
फेंकी जाती है जिसके घर में ये रोटियाँ ।
फिर भी लड़ते देखता हूँ सूरज से रोज़ उसे,
जो लड़ाई करके और छीन झपट लाता है यू,
आग के बवंडर के मुख से बच्चों की रोटीयाँ।
घूम जाती धरती यू ही माँ नहीं कहते उसे,
थका हुआ आया बच्चा ज्यू ही जीत रोटियाँ।
सूरज के ताप से छुपा लेती उसको यू ,
छत नहीं जिसे मिली रोटियों के साथ में।
गोद में बिठा सूरज से मुँह फेर बैठती है,
जैसे माँ छुपा लेती बच्चों को धूप से ।
हाँ ईश्वर ने बनाई रात उसके लिए ही,
रोटी नहीं दी है जिसको उसने आराम की।
और बरसाता पानी जब देखता है कष्ट प्रबल,
दे दिये है जिनको उनसे भर-भर कर पहाड़ से ।
पर करम बंधन से जकड़ा हुआ है वो यू ,
बच नहीं सकता इन रोटियों के जाल से।
ईश्वर करें कृपा या धरती छुपा ले उसे,
जीतनी तो पड़ेगी ही रोज़ उसे रोटियाँ ।
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