लेकर सब आशाओं की किरने सो जायें ।
स्वप्नों के महलों के नरेश बन जायें ।
इच्छाओ की इस भीषण मृगतृष्णा में ।
अंगार उठाकर कहाँ कहाँ ले जाये ।
अगनित सतहों में ओट कर बैठी ।
जीवन की निर्झर स्नेह लता की सुरभि ।
पर स्वप्नों के तुम हो स्वप्नेश स्वयं ही ।
तुम वह बन सकते हो जैसा चाहो ।
तो क्या कोई बनना चाहेगा असफल ।
या कोई आतंकी बनना चाहेगा ।
या कोई ईर्ष्या कर स्वयं को -
जला जला मारेगा ।
या फिर वह बनना चाहेगा नायक ।
या वो सबका रक्षक बन छाएगा ।
या वो अपनी मुश्कान से -
बड़े बड़े कष्टों को टालेगा ।
क्या वो आशीर्वचन चाहेगा ।
या गाली खा मुस्कायेगा ।
या सबका लाड़ला बनेगा ।
या फिर छुपता रह जाएगा ।
वैसे कुछ नहीं अलग है ।
ये स्वप्न और ये जीवन ।
जो जैसा भी चाहेगा ।
वो वैसा बन जाएगा ।
पर धैर्य नहीं खोना होगा ।
इच्छित कर्म करना होगा ।
ये स्वप्न नहीं जीवन है ।
कुछ तो बिलम्ब होगा ही ।
पर धैर्य तुम्हारा इक दिन ।
वो दिन लेकर आयेगा ।
जो स्वप्नों में सोचा था ।
वो भी सच हो जाएगा ।
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