Sunday, 6 October 2019

सूर्य वंदन

इष्ट तुम्हारा आराधन है, इष्ट तुम्हारा ही वंदन।  
सहस्त्र ज्योति की ललनाओं से, इष्ट तुम्हारा अर्पण-तर्पण।। 

सप्त वर्ण के प्रतिनिधि अश्वो का मैराथन।  
सप्त सुरों के वंधन से है जिनका साजन।। 
सप्त प्रदीपित दिव्य ज्योति का प्रस्फुट विकिरण।
 सप्त शक्ति के इष्ट तुम्हारा आराधन।।  

नीलाम्बर पर विचरण करते हे दिव्य देव तुम।  
सृष्टि  से तम  का विनाश प्रतिपल करते तुम।।
आशीर्वचन बोल कर तुम मुझको भी किंचित।  
नवल प्रात का सृजन करो मस्तक के अंतर।।

नवदीपित यह आत्मशक्ति तारों को छू ले।  
आलोक संघनित हो इतना की ताम सर्वश्व नष्ट कर दे।। 
ऊर्जस्वित हो जाये अवयव कूट-कूट कर।  
वृष्टि बने, बरसे बन जीवन प्राण गति सम।।
आह्लादित्त  कणिका रूपी दिव्य सखी बन। 
करती जाये जब - जब मेरा आलिंगन।। 

शतपथ चलूँ साध्य लक्ष्य धारण कर लूँ। 
कर्मठ जीवन का अभिप्रेत पालन कर लूँ।।
तम में गर भटके मेरा कण सा आस्तित्व। 
दीप दिखा कर मार्ग सुझा देना प्रिय मित्र।।

देव तुम्ही हो प्राण शक्ति के साधन मेरे। 
एक तुम्ही हो दिव्य ज्योति से दीपक मेरे।।
प्राण पल्लवित होता गर जीवन की नैया। 
नविक रूपी पा लेती तेरा पथदर्शन।।

साधक हूँ अनुराग यही मेरा जीवन।
प्रेम प्राप्ति की आकुलता ही मेरा चिंतन।।
हृदय ज्वार का बाँध कभी टूटे गर विचलित। 
संभव न हो तेरी मुखकृति  के जब दर्शन। 

पर्वतमाला के शिखरों से ओटित उदयन। 
दिव्य रश्मियों से तेरे अवसान विकीर्णन।।
उदय सत्य का, उदय तिमिर गति का अति मंदन।
उदयित तेज प्रकाश पुरुष तेरा अभिनन्दन।।

देव उदय ही तेरा तम पर विजय विनियमन। 
उदय पूर्व ही तम का तुझको राज्य प्रत्यर्पण।।
प्रात काल की मधुरिम  बेला में तब करते। 
श्वेत कमल दल खिल - खिल तेरा आराधन।।

पत्रों पर औंस की बूंदों से हो निर्झर।
उदय ;काल की शोभा बन - बन जाती उज्जवल।।  
माणिक सम दीपित बूंदों  दिव्य वियोजन। 
आरति करता पवन वेग में, पत्रों का अनुदोलन।।

मिहिर प्रताप विखंडित, विस्मृत, विलग, विकाल। 
मिहिर तेज सम दीपित क्या कोई विश्वास।।
मिहिर रश्मियों से निकसित अनुदित कृति दीप्ति। 
मिहिर दीप्ति की मृदु छाया में होती नवकुल सृष्टि।।

मध्य दिवस का तेरा वह विकराल उद्वेलन। 
शक्ति परिक्षण  सा करता तेरी रश्मियों का अनुतापन।।
 विकलित अनुकम्पन सा हो जब  व्याप्त। 
अखिल जगत का स्वामी जब - जब करे सबल प्रतिघात।।  
 
 
 
 
  

Monday, 14 January 2019

“आँसू”

अकरुण हो करते हो कैसा बिम्ब विधान!
परिभव जब कर करते हो करुणित अवसान !!
महावात जब-जब उर में उठ जाये विकलित!
नयन नीर अपगा से बहते रहते बिचलित!!

आकुल जीवन अंतहीनता से परिपूर्ण!
पारितोषित जीवन का मंडन कुछ अपूर्ण!!
तृषित द्रव्य यह विकल हो उठे बारम्बार!
नेत्रों से झर-झर जब बहता है अनुराग!!

स्वत्व नहीं कुछ मेरा तुम पर रहा अभी!
सख्य हमारा तम की भेंट चढ़ा अब भी!!
आलोकित हो जाये जब सब मार्ग अवरुद्ध!
दिव्य कसौटी पर कस लेना मेरा सतीत्व!!

अंतरतम विकराल रूप धारण कर ले!
दिगुणित होता तिमिर कष्ट बन जब डस ले!!
आवेग उठे जब प्रिय के मुखकृति दर्शन को!
द्रव्य उठे जब प्रणय मृत्यु आलिंगन को!!
प्रिय का त्याग व्यर्थ नहीं होने पाए!
करू परिश्रम छंटे तिमिर और दिनकर आये!!

कुछ पक्तियां मेरी रचना “आँसू” से

चिंतन...



चाहतें, जिनको मायूसी रोक नहीँ पाती और एकाकीपन मार नहीँ पाता!
उलझने,बुद्धि जिन्हें सुलझा नहीं पाती और विवेक जिसे छू भी नहीं पता !
अपनापन, जो वर्षो न मिलने पर भी हर पल साथ होने का एहसास देता है!
ज्ञान, जो मुक्ति तक नहीं जाता, और अनजान रहना चाहता है!

प्यार, जो रह-रह कर इतना छलक जाये, की एक-एक रोम उसमे भीग जाये!
आँखे, जो उसे देखने के बाद कुछ और नहीं देखना चाहें!
भूख, जिसे कोई पकवान शांत न कर सके और वो पल पल सताती रहे!
आकार, जो रूप और रंग से परे हो और उसे इसका ज्ञान भी हो भी हो। 
क्या ईश्वर ऐसा ही होता है, क्या मैंने खोज लिया उसे, भले ही वो प्रसन्न नहीं मुझसे।

आईये बह चलें...

आईये बह चलें, बह चली जिधर गंगा है!
ना लड़े, बह चलें, बह चली जिधर गंगा है!!

सिद्धांतों और रूढ़ियाँ तोड़कर, स्वतंत्र भारत की स्वतंत्रता समेंट लें!
आईये बह चले.................................

बुरा करें, भला कहें, युग के चलन से हम पृथक क्यों रहें!
आईये बह चलें.................................

सुख गंगा की धार, खाड़ी सुखसागर!
मार्ग में गर्त के नये आयाम चूम लें!!

आईये बह चलें, बह चली जिधर गंगा है!