माँ क्यों चुप है,
क्यों नहीं वही लाली उसके चेहरे पर है,
जो बनी रही माँ ने जबसे तुमको देखा,
और रही तुम्हारे बचपन के छिन जाने तक ।
क्या मेरा अंश नहीं होगा मेरे जैसा,
क्या मेरे अंग बिरोध करेंगे मेरा ही,
क्या वो भी साथ नहीं देगा जग में,
पाला है जिसको सिंचित कर निज शोणित से।
क्या तिरस्कार उस अवयव से मिल सकता है,
जिसको मान का अर्थ समझाया बैठाकर,
क्या जिसको चलना सिखलाया है मैंने,
क्या वो भी जा सकता है मेरा हाथ झिड़ककर।
क्या मैंने जिसकी रक्षा की इस जीवन भर,
क्या वो भी छोड़ चला जाएगा शत्रु समीप,
क्या मनुज नहीं है बो जिसको जन्मा मैंने,
क्या ईश्वर है ही नहीं कही सारे जग में ।
क्या जिसको सींचा हृदय क्षीर का पान कराकर,
क्या वो भी ना पूछेगा क्या खाया है माँ,
क्या वो भी ना आएगा सुध लेने को मेरी,
जिसकी सुध में ही जीवन मेरा बीत गया।
नहीं नहीं ऐसा कुछ भी मैं ना सोचू ,
ना नहीं नहीं ऐसा ना है कुछ मेरे साथ,
मेरा अंश सदैव सदैव ही है मेरा,
शायद ये बुद्धि ही साथ नहीं देती मेरा।
जो सोच लिया विरोध किया है उसने,
उसने तो बस मुझको समझाया ही होगा,
वो साथ नहीं इसका मतलब ये ही तो नहीं,
वो मेरी गरज नहीं कभी नहीं करता होगा।
ना ना अरे वो नहीं रहा होगा अपमान,
हूँ मूढ़ बुद्धि मुझको ही है कम ज्ञान,
पर हाथ तो मेरा झिड़का था ही उसने,
पर शायद वो उस वक़्त कही फिसला होगा,
नहीं नहीं ऐसा कुछ भी मैं ना सोचूँ,
ना नहीं नहीं ऐसा ना कुछ है मेरे साथ।
ना छोड़ा होगा उसने बस भर शत्रु समीप,
क्या पता जतन क्या-क्या बच्चा करता होगा,
वह निश्चय ही आ जाएगा मेरी रक्षा को,
वह अंश अंश और कण कण भर बस मेरा है ,
नहीं नहीं ऐसा कुछ भी मैं ना सोचू ,
ना नहीं नहीं ऐसा ना है कुछ मेरे साथ।
पर भूख तो लगी है मुझको कल से ही है,
है मैंने बतलाया भी था उसको कई बार,
फिर क्यों ना आया ना कुछ भेजा किसी के हाथ,
अब क्या समझूँ वो भूल गया होगा।
वैसे ही हैं काम बहुत इस दुनिया में,
शायद थक कर कहीं सोया होगा ।
नहीं नहीं ऐसा कुछ भी मैं ना सोचू ,
ना नहीं नहीं ऐसा ना है कुछ मेरे साथ।
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