आज फिर देखी वही श्रद्धांजलि,
सर झुकाए दे रहे उनके शवों पर ।
किंचित् एक श्रद्धांजलि की आड़ में वे,
मुक्ति मातृ रक्षा से भी चाहते है ।
वीरता के भाव का उपहास करके,
छाँव उसके शौर्य की जिसमे सुरक्षित ।
वातानुकूलित घरों और कार्यालयों में,
देश को दीमक से खाते जा रहें हैं ।
कौन देखेगा शैकत का समंदर,
जो उबलता जेठ की हर दोपहर में ।
वे अडिग से खोजते है दुश्मनों को,
ध्यान भी ना जाता जलते चर्म पर जब,
मातृ रक्षा के निमित पग धारते हैं ।
और समझेगा कौन उनके भाव को जो,
गल गए या दबे वर्फ़ की आँधियों में ।
पर ना छोड़ा आपको उसने कभी भी,
सोचना पड़ जाये जीवन को बचाते ।
जो चली है गोलियाँ इस राष्ट्र पर - तुमपर,
वो सभी है खायी अपने वक्ष पर ज्यो।
और छोड़ा है धरा को इस तरह से,
शौर्य की स्याही का ज्यों उपयोग करके,
कर्ज माँ का जैसे कोई बच्चा उतारे।
तो कभी जब बैठे हों उन्माद में हम,
स्वयं से नीचा सभी को देखने में ।
कोई हक़ बनता नहीं कुछ बोलने का,
प्राण आहुति देके जिसने मोल ली हो,
हम सभी लोगों के जीवन की सुरक्षा ।
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