हैं गिने हुए ये सारे दिन और साँसे,
जिनको तुम जीवन कहते हो ।
है लिखा हुआ संदेश तुम्हारे माथे,
फिर भी प्रलाप कर मरते हो ।
ये नहीं सहज जैसा तुमने सोचा होगा ,
ये नहीं सरल जैसा चाहो वैसा ढालो ।
ये फल है उसका जो बोते रहते हो हरपल,
पर निश्चय ये सदियों पहले बोया होगा ।
जब काँटे बोए तो फिर असहज क्यों हो ,
क्या कभी कृषक रोया उन्नत फसलों पर ।
अब उस आनंद को सोच सोच कर भोगों,
एक एक निवाला अपनी उन फसलों का ।
पर जो फल कड़वे मिले इस थाली में ,
उनके बीजों को कभी नहीं तुम बोना ।
पर गर बो दिया है फिर से,
ये पता नहीं कब कब पड़ेगा रोना ।
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