पथ में काल चक्र का यह कैसा विश्राम!
भरा क्षितिज तारों से निर्जन धरा संज्ञान!!
सघन शांति से खंडित विप्लव का विस्तार!
विकृति विकट वास करती हर घर के द्वार!!
निद्रा में सत्, ज्ञान, उचित, संतुष्टि विचार!
तिमिरापात असत अज्ञान का विज्ञ प्रमाण!!
नित्य काल का यह पथ शठता का पर्याय!
सत्य-असत का तालमेल ही जीवन चक्र निकाय!!
निद्रा में है तरुण, वृद्ध, बालक अरु सदकण!
सचल नृशंस, सुरारि, भीति व् तामस के ब्रण!!
सूनापन सा व्याप्त जगर के हर एक कण में!
मानो समरभूमि का परिभव व्यक्त हो रहा घर में!!
वामापट में जड़ित स्वर्ण तारों सम दीपित!
मार्तंड आवाहन पथ अम्बर श्रिंगारित!!
श्वान, उलूक शब्द ही गुंजित अखिल सरल में!
भय परिवेश रहा हो विकसित पल ही पल में!!
ईश्वर सम ही व्याप्त तिमिर जग के हर कण में!
दंभ भर रहा समता का आस्तित्व के रण में!!
जंगम होते रजनीचर जय जय ध्वनि करके!
आरति, वंदन, नमन, तिमिर का रह रह करके!
जीवन की कड़ियाँ थिरक थिरक, जाती थी ले पीताम्बर पोह!
उर में विकसित मलिनता सी, निकसी उड़ फैली चारो ओर!!
परिवेशित था नीलाम्बर पर, लेते थे रजनीचर जब टोह!
जीवंत दिवस के व्यस्त खंड में, जैसे दिनचर हो चहुओर!!
फिर बदली में छुप छुप निकले, पुर्णिम शशांक का वह मुखड़ा!
कवि, प्रेमी, चकोर, सुहागिन व, मुल्ला के दिल का जो टुकड़ा!!
तारो की लड़ियाँ बन जाये जब, खेल खिलौनों की गुडिया!
शिशु देख-देख अंतर-अंतर, सिमटी उर में उमंग लड़ियाँ!!
श्वान कूक उठ हो विकसित, तिमिरागत खंड के कोने पर!
मानो नेता के शब्दों पर, स्वीकृत प्रत्युत्तर होने पर!!
फिर श्वान चले उस कुटियाँ पर, दुःख का आभार जताने को!
तीन दिवस उपरांत प्रलय सम, जिसमे बादल छाने को!!
बिद्यार्थी गण करें मनन उस, दिव्य सरस्वती की माया!
निश्छल कण अब यही बचें है, जिसने ज्ञान-पुंज पाया!!
मृत्यु लोक पर कर्म का ईंधन, ही जीवन का एक उपाय!
सत्य, असत कर्म के पथ पर, निश्छल यु ही बढ़ते जायँ!!
सत्य कर्म उपयुक्त दिवस में, असत निशा में समय विधान!
सृष्टि विधायन करने वाला, करे कर्म का समय विधान!!
साम्य सृष्टि का शाश्वत नियमन, करता रहता सृष्टि विधान!
सत्य, असत भी इस नियमन से, प्रतिपल है रहते संज्ञान!!
दिवस कर्म सत्य परिलक्षित, करते जाये गुणी विद्वान्!
असत कर्म के सेनानायक, करते केवल साम्य सुजान!!
साम्य सृजन की यही प्रक्रिया, चलती जाती है अविराम!
सत्य, असत के कर्ता-धर्ता, करें असंगत के प्रति काम!!
चला सामरी आखेटन को, छूटे-बिछड़े सत कर्मो का!
उधर नवल किरण चली आ रही, कवच बनाने अनलो का!!
निशा की गली में भटकते सचल दल!
तिमिर गंध की मस्त आगोश के!!
करो कर्म इतना तिमिर छंट न जाये!
असत कर्म पर सत अभय तो न पाए!!
अभी चाँद आया है ऊपर हमारे!
निशा अर्ध अब भी है कर्मो के द्वारे!!
उठो की असत की विजय आज कर दें!
करें वो तिमिर फिर सवेरा न आये!!
लगे नारे ऐसे की जीतेंगे अब हम!
नहीं एक कण भी उजाला बचेगा!!
सत कर्म के नायक सो रहे है!
सृष्टि का न कोई रखवाला बचेगा!!
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