इष्ट तुम्हारा आराधन है, इष्ट तुम्हारा ही वंदन।
सहस्त्र ज्योति की ललनाओं से, इष्ट तुम्हारा अर्पण-तर्पण।।
सप्त वर्ण के प्रतिनिधि अश्वो का मैराथन।
सप्त सुरों के वंधन से है जिनका साजन।।
सप्त प्रदीपित दिव्य ज्योति का प्रस्फुट विकिरण।
सप्त शक्ति के इष्ट तुम्हारा आराधन।।
नीलाम्बर पर विचरण करते हे दिव्य देव तुम।
सृष्टि से तम का विनाश प्रतिपल करते तुम।।
आशीर्वचन बोल कर तुम मुझको भी किंचित।
नवल प्रात का सृजन करो मस्तक के अंतर।।
नवदीपित यह आत्मशक्ति तारों को छू ले।
आलोक संघनित हो इतना की ताम सर्वश्व नष्ट कर दे।।
ऊर्जस्वित हो जाये अवयव कूट-कूट कर।
वृष्टि बने, बरसे बन जीवन प्राण गति सम।।
आह्लादित्त कणिका रूपी दिव्य सखी बन।
करती जाये जब - जब मेरा आलिंगन।।
शतपथ चलूँ साध्य लक्ष्य धारण कर लूँ।
कर्मठ जीवन का अभिप्रेत पालन कर लूँ।।
तम में गर भटके मेरा कण सा आस्तित्व।
दीप दिखा कर मार्ग सुझा देना प्रिय मित्र।।
देव तुम्ही हो प्राण शक्ति के साधन मेरे।
एक तुम्ही हो दिव्य ज्योति से दीपक मेरे।।
प्राण पल्लवित होता गर जीवन की नैया।
नविक रूपी पा लेती तेरा पथदर्शन।।
साधक हूँ अनुराग यही मेरा जीवन।
प्रेम प्राप्ति की आकुलता ही मेरा चिंतन।।
हृदय ज्वार का बाँध कभी टूटे गर विचलित।
संभव न हो तेरी मुखकृति के जब दर्शन।
पर्वतमाला के शिखरों से ओटित उदयन।
दिव्य रश्मियों से तेरे अवसान विकीर्णन।।
उदय सत्य का, उदय तिमिर गति का अति मंदन।
उदयित तेज प्रकाश पुरुष तेरा अभिनन्दन।।
देव उदय ही तेरा तम पर विजय विनियमन।
उदय पूर्व ही तम का तुझको राज्य प्रत्यर्पण।।
प्रात काल की मधुरिम बेला में तब करते।
श्वेत कमल दल खिल - खिल तेरा आराधन।।
पत्रों पर औंस की बूंदों से हो निर्झर।
उदय ;काल की शोभा बन - बन जाती उज्जवल।।
माणिक सम दीपित बूंदों दिव्य वियोजन।
आरति करता पवन वेग में, पत्रों का अनुदोलन।।
मिहिर प्रताप विखंडित, विस्मृत, विलग, विकाल।
मिहिर तेज सम दीपित क्या कोई विश्वास।।
मिहिर रश्मियों से निकसित अनुदित कृति दीप्ति।
मिहिर दीप्ति की मृदु छाया में होती नवकुल सृष्टि।।
मध्य दिवस का तेरा वह विकराल उद्वेलन।
शक्ति परिक्षण सा करता तेरी रश्मियों का अनुतापन।।
विकलित अनुकम्पन सा हो जब व्याप्त।
अखिल जगत का स्वामी जब - जब करे सबल प्रतिघात।।
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