Monday, 17 July 2023

कीट के जीवन का उद्देश्य ।

प्रकृति के छोटे सृजनों में,

जीवन की अद्भुत रचना है।

मनुष्य समान ही वो भी अनभिज्ञ,

उद्देश्य उनके जीवन का है क्या ?

सबसे छोटे जीवों में भी जीवन की विशालता देखो,

अपने छोटे-छोटे उद्देश्यों को जीत लेते हैं रोज़ ।


छोटे होने का जीवन संघर्ष,

और सब वही मानव जैसा ।

संगठन की शक्ति जानना,

और प्रयोग करना उसे बिपत्ती काल में।


जीवन  का आदान-प्रदान करते हैं कीट और पौधे,

देखो उनका संघर्ष अद्वितीय और महत्वपूर्ण ।

वो नहीं लड़ते जीवन की रोटी बनाने में,

और देते एक दूसरे को शक्ति और ऊर्जा ।


धरती के हर छोटे कोने में,

कीट करता अपना नित्य कार्य पूरा ।

और उदाहरण देता मानव को,

कि हर छोटे कार्य का भी होता है महत्व ।


कीट बिना जाने ही करता है संतुलन प्रकृति में,

क्यूकी नहीं पूछता वो क्यों करूँ मैं ये ।

और लग जाता है पूरी निष्ठा से,

उसमे जो भी आ जाता है सामने करने को ।

वो लाता है ख़ाना अपने बच्चों के लिए रोज़,

चल देता है घर एक समय से ।


बिना उद्देश्य जाने जीवन का ,

करता है वही जैसा नियति घटती है सामने ।

और अनायास ही और बिना उसके जाने ही,

पूरा हो जाता है उसके जीवन का हेतु पूरा ।



Saturday, 15 July 2023

तो ले चला मैं संग कर्मों की बही को ।

तो ले चला मैं संग कर्मों की बही को,

जिसका बराबर हो गया है लेना-देना ।

और छोड़ वो सब जो दुनिया के निशाँ है,

जिनपे हमारा अब नहीं कोई निशाना ।


लो आज माधव वचन अपना यू निभाओ,

मिल जाये अपगा सागर सम तुममें ही जाकर ।

और पुनः ना जुड़ पाये कोई बंधन ऐसा,

जिससे कभी भी हो पुनः इस जग में आना ।


वैसे कभी मैं सोचता हूँ क्यों गिरा मैं,

इस सघन तम के गर्त में क्या सोच करके ।

या ये तो नहीं की तुमने ही मुझको गिराया,

अपनी क्षणिक आनंद लीला के निमित्त यू ।


और छीन ली वो समझ जो मुझको मिली अब,

अनगिनत सब जतन कर गुरुओ से सीखे ।

क्या किया होगा कि जिसकी सजा थे,

अनेकों जीवन के ये जंजाल जकड़े,

और बताया ये नहीं की शर्त है एक,

जो पहेली बन बही के गणित में है ।


पर अब नियम पूरा हुआ इस खेल का जो,

तुमने लीला रच रचा के था बनाया ।

लो शर्त पूरी हो गई है उस बही की,

जिसमें कभी जोड़ा घटाया ना शून्य आया ।

Wednesday, 12 July 2023

मानवता कब रही आश्रित मानव देह पर ।

मानवता कब रही आश्रित मानव देह पर ।

क्या भाव ये नहीं उनमे,

जिनकी देह नहीं है मानव की ।


क्या कंगारू जो खड़ा होता दो पैरों पर,

कुछ वैसे ही जैसे बानर, 

और दोनों खड़े होते है कुछ मानव से,

पर क्या मानवता हो सकती है उनके भीतर भी ।


अरे नहीं वो मानवता जो करें मानव शरीर वाले,

कर सके जो दया, 

दे सके जैसे देती है प्रकृति माँ,

बिना किसी आशा के सबको,

बिन भेद भाव,

या कर सके भला सबका।

और करे रक्षा विपत्ति में ।


क्या जटायु का वह प्रयास,

माँ सीता को बचाने का,

था नहीं मानवता।


जो राणा को काल से निकाल लाई,

वो चेतक की छलांग,

थी नहीं मानवता।


क्या देखा नहीं कौवों का आ जाना,

एक भी फँसे कौवे को बचाने ।

या गली के कुत्तों को 

घुसपैठिए के आने पर ।

या मधुमक्खियों का वो दल,

चला जान देकर अपनी थाती बचाने।


एक बार फिर देखो,

शायद जिनका शरीर नहीं मानव का,

उनमे अधिक है मानवता ।

क्यों नहीं कहते कि जो कुछ भी हुआ है ।

क्यों नहीं कहते कि जो कुछ भी हुआ है,

तुम ही हो इन सभी व्यवस्थाओ के पीछे ।

क्यों नहीं कहते ये जो ताले लगे हैं ,

जो कभी होते नहीं थे किसी दर पर,

ये तुम्हारा कारनामा दिख रहा है,

लटके है ताले हर एक दर और डगर पर ।


क्या तुम वो नहीं, था जिसने चुराया,

घर में घुसकर गहने, पैसे और सामाँ,

और फिर लाए तुम्हीं ताला बनाकर,

और बेंचा एक एक घर घर में जाकर ।


क्यूकी तुम थे ग़लत तुम ही हो कि जिसने,

हर लिया विश्वास जन में दूसरे का,

क्या नहीं ये वही हर्षवर्धन की धरती,

जहां नहीं थे ताले लगते किसी घर पर।


पर तुम्हारा कथन भी है सत्य दिखता,

आज जो भी लोग है धन को कमाते,

और रहते विशालकाय भवनों में जाकर,

पर तुम्हारा एक डर है, जिसलिये वो,

अपने भवनों में है ताले लगाते ।


और बैठाते सुरक्षा हर तरफ़ वो,

जिससे तुम आ ना सको झुपते छुपाते ।

और सुरक्षा में लगे जो लोग उनके,

घरों के खर्चे भी इससे चल रहें हैं,

बच्चे स्कूलों में पढ़ने जा रहें है,

और भोजन की व्यवस्था पा रहें है। 


नहीं हो सकता है हैरां कोई भी यू, 

जब फ़रिश्तों ने सुनाई दास्ताँ यह,

और कहा इंसान है ये तो वही जो,

कर गया उद्धार लाखों का जहां में ।

Tuesday, 4 July 2023

नियति क्रम उचित सही ।

नियति क्रम उचित सही, 
और यह फलित सही,
विचित्र सत्य पर सही,
अनादि काल से सही,
अनंत काल तक सही।

परंतु यह कथन सही,
कर्म अधीन है सभी,
जगे हुए मनुज सभी,
है मानते इसे सही ।

तथापि स्वयं ईश ने,
कहा था पार्थ देख लो,
मैं बध चुका उन्हें कभी,
जो सामने खड़े अभी ।

उठो समय चला उधर,
जो मारकर उन्हें तुम्हीं,
निमित्त बन के मात्र ही,
जीत लो धरा भुवन,
नियति में जो दिया कभी,
कर्म से प्रसन्न हो,
वर स्वरूप मैंने ही ।

नहीं बदल ना पाओगे,
दृश्य जो भी है दिखा,
सभी है रच दिया कभी,
विधान के निमित्त ही,
जो सभी ने मिल किये,
ये सोचकर की क्या भला,
कई जन्म के बाद भी,
और स्वत्व राज्य में,
व स्वयं के विधान में,
जो दे सके नरेश को,
दंड का प्रसाद भी ।

तो उठो मैं साथ हूँ,
व कपिश साथ है,
कपिध्वज साथ है,
विद्युदिन व वायुदिन,
अग्निदिन, नक्षत्रदिन,
में भी ना कोई बात है ।

पर है ये सब टिका हुआ,
जो बन तुम निमित्त यू,
जीत लो सकल भुवन,
श्रेय योग में लिखा, 
इसी समय अभी यहीं ।

करो स्वयं या देख लो,
युद्ध भूमि में सभी,
योद्धा है जो खड़े,
वे अंश है तो मेरे ही - तुम्हारे ही,
तो जब समय है आ गया,
कोई उठ अभी यहीं,
बनेगा वो भी पार्थ ही,
और करेगा वैसा ही,
जो था नियति लिखा,
हो जाने को अभी ।

बिलम्ब अब करो नहीं,
जीत लो जो सत्य है,
नियति व उस विधान में,
जो बना लिया मनुष्य ने,
और फिर मैं साथ हूँ,
जो होता सिर्फ़ सत्य के,
और सिर्फ़ धर्म के ।

तो मत करो बिलम्ब पार्थ, 
अब शुरू करो यहीं ।

https://www.facebook.com/reel/1343520943041509 

अरे नहीं है वे इंसान ।

 अरे नहीं है वे इंसान,

बस ओढ़ लिए है सबने ,

आवरण इंसान के।


पर असल में है इनमें,

कोई कुत्ता, लोमड़ी या गिरगिट,

और ना जाने क्या क्या ।


भेष बदलें है सभी ने,

खा लेने को अंतिम इंसान।

और बना लेने को अपनी सरकार ।


जिससे जब बात होगी,

ग़लत की, झूठ की, ठगने की।

या होगी क़त्ल की, बलात्कार की,

तो ये ठहरा पायेगे सही उसे,

और देंगे दलील उसके पक्ष में ।


क्यूकी नहीं मानते ये ग़लत,

छल लेना औरों की दौलत,

उनके काम का श्रेय, 

उनके हिस्से का सुख-चैन,

और उनके अंग व रक्त,

और ना जाने क्या क्या ।


नहीं चाहते ये इंसानों को,

खाने देना एक भी निवाला,

जो है उनके हक़ का, ईमान का ।


ज़रूरत है पहचानने की, क्या है इनमें कोई इंसान।

और फिर ज़रूरत जोड़ लेने की हर एक को,

जिनमे बची है थोड़ी भी आशा इंसान बने रहने की।


और ज़रूरत है बनाने की सरकार इंसानों की,

और हर किसी को देने की उसका काम ।

जैसे कुत्ते को दूसरे कुत्ते सूंघ कर पहचानने की,

या लोमड़ी को चालांकियाँ समझ कर लोगों को न्याय दिलाने की,

या गिरगिट को ये देखने की किसने कब था रंग बदला और क्यों।


हाँ सिर्फ़ इंसान होना काफ़ी नहीं ,

है ज़रूरत जगाने की इंसानियत,

उन सब में भी जो स्वभाव बस,

बन गये है दरिंदे लोभ में कुछ लाभ में ।


पर है उनका अवगुण भी काम का इंसान के,

तो सिर्फ़ नहीं काफ़ी बने रहना इंसान ।

पर सिखाना पाठ सबको, जो बनाये उनको भी कुछ वैसा ही,

जैसे इंसान रहते है बस्तियों में ।


और देना उनको भी सम्मान उनके काम का,

जो नहीं करता स्वप्न में भी,

चाहे हो देव तुल्य इंसान ।

ये छाँव और धूप, भी खेलती है खेल ।

 ये छाँव और धूप, भी खेलती है खेल,

किसी को भरम, किसी को आराम देती है ।

बन जाती काल धूप, जब देखती है ये की,

निकला है जीतने कोई बच्चों की रोटियाँ ।

और बन जाती छाँव जैसे ही निकलता कोई,

फेंकी जाती है जिसके घर में ये रोटियाँ ।


फिर भी लड़ते देखता हूँ सूरज से रोज़ उसे,

जो लड़ाई करके और छीन झपट लाता है यू,

आग के बवंडर के मुख से बच्चों की रोटीयाँ।


घूम जाती धरती यू ही माँ नहीं कहते उसे,

थका हुआ आया बच्चा ज्यू ही जीत रोटियाँ।

सूरज के ताप से छुपा लेती उसको यू ,

छत नहीं जिसे मिली रोटियों के साथ में।

गोद में बिठा सूरज से मुँह फेर बैठती है,

जैसे माँ छुपा लेती बच्चों को धूप से ।


हाँ ईश्वर ने बनाई रात उसके लिए ही,

रोटी नहीं दी है जिसको उसने आराम की।

और बरसाता पानी जब देखता है कष्ट प्रबल,

दे दिये है जिनको उनसे भर-भर कर पहाड़ से ।


पर करम बंधन से जकड़ा हुआ है वो यू ,

बच नहीं सकता इन रोटियों के जाल से।

ईश्वर करें कृपा या धरती छुपा ले उसे,

जीतनी तो पड़ेगी ही रोज़ उसे रोटियाँ ।